अदल बदल भाग - 3

अदल-बदल

मास्टर साहब टयूशन पर जाने की तैयारी में थे। माया ने कहा---'सुनते हो, मुझे एक नई खादी की साड़ी चाहिए, और कुछ रुपये। महिला-संघ का जलसा है, मैंने उसमें स्वयं-सेविकाओं में नाम लिखाया है।'

'किन्तु रुपये तो अभी नहीं हैं, साड़ी भी आना मुश्किल है, अगले महीने में...'

माया गरज पड़ी---'अगले महीने में या अगले साल में! आखिर क्या में भिखारिन हूं? मैं भी इस घर की मालकिन हूं, ब्याही आई हूं---बांदी नहीं।

'सो तो ठीक है प्रभा की मां, परन्तु रुपया तो नहीं है न। इधर बहुत-सा कर्जा भी तो हो गया है, तुम तो जानती ही हो..।'

'मुझे तुम्हारे कर्जों से क्या मतलब? कमाना मर्दों का काम है या औरतों का? कहो तो मैं कमाई करूं जाकर?'

'नहीं, नहीं, यह मेरा मतलब नहीं है। पर अपनी जितनी आमदनी है उतनी...'

'भाड़ में जाए तुम्हारी आमदनी। मुझे साड़ी चाहिए, और दस रुपये।'

'तो बन्दोबस्त करता हूं।' मास्टर साहब और नहीं बोले, छाता सम्भालकर चुपचाप चल दिए।

पूरी तैयारी के साथ सज-धजकर जब माया जलसे में गई तो हद दरजे चमत्कृत और लज्जित होकर लौटी। चमत्कृत हुई वहां के वातावरण से, व्याख्यानों से, कविताओं और नृत्य से, मनोरंजन के प्रकारों से। उसने देखा, समझा---अहा, यही तो सच्चा जीवन है, कैसा आनन्द है, कैसा उल्लास है, कैसा विनोद है! परन्तु जब उसने अपनी हीनावस्था का वहां आनेवाली प्रत्येक महिला से मुकाबला किया तो लज्जित हुई। उसने दरिद्र, निरीह पति से लेकर घर की प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त नगण्य, अत्यन्त क्षुद्र, अत्यन्त दयनीय समझा, और वह अपने ही जीवन के प्रति एक असहनीय विद्रोह और असन्तोष-भावना लिए बहुत रात गए घर लौटी।

मास्टर साहब उसकी प्रतीक्षा में जागे बैठे थे। प्रभा पिता की कहानियां सुनते-सुनते थककर सो गई थी। भोजन तैयार कर,आप खा और प्रभा को खिला, पत्नी के लिए उन्होंने रख छोड़ा था।

माया ने आते ही एक तिरस्कार-भरी दृष्टि पति और उस शयनगार पर डाली, जो उसके कुछ क्षण पूर्व देखे हुए दृश्यों से चकाचौंध हो गई थी। उसे सब कुछ बड़ा ही अशुभ, असहनीय प्रतीत हुआ। वह बिना ही भोजन किए, बिना ही पति से एक शब्द बोले, बिना ही सोती हुई फूल-सी प्रभा पर एक दृष्टि डाले चुप-चाप जाकर सो गई।

मास्टर साहब ने कहा---'और खाना?'

'नहीं खाऊंगी।'

'कहां खाया?'

'खा लिया।'

और प्रश्न नहीं किया। मास्टर साहब भी सो गए।

माया प्रायः नित्य ही महिला - संघ में जाने लगी। उन्मुक्त वायु में स्वच्छन्द सांस लेने लगी; पढ़ी -लिखी, उन्नतिशील कहाने वाली लेडियों-महिलाओं के संपर्क में आई; जितना पढ़ सकती थी, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने लगी। उसने सुना -उन महामहिम महिलाओं में, जो सभाओं और जलसों में ठाठदार साड़ी धारण करके सभानेत्रियों के आसन को सुशोभित करती हैं, चारों ओर स्त्री-पुरुष जिनका आदर करते हैं, जिन्हें प्रणाम करते हैं, हंस-हंसकर झुककर जिनका सम्मान करते हैं, उनमें कोई घर को त्याग चुकी है, कोई पति को त्याग चुकी है; उनका गृहस्थ- जीवन नष्ट हो चुका है, वे स्वच्छन्द हैं, उन्मुक्त हैं, वे बाधाहीन हैं, वे कुछ घंटों ही के लिए नहीं, प्रत्युत महीनों तक चाहे जहां रह और चाहे जहां जा सकती हैं, उन्हें कोई रोकने वाला, उनकी इच्छा में बाधा डालने वाला नहीं है। उसे लगा, यही तो स्त्री का सच्चा जीवन है। वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी हैं, वे नारियां धन्य हैं।

ऐसे ही एक सामाजिक मिलन में उसका परिचय नगर के प्रख्यात डाक्टर कृष्णगोपाल से हुआ। डाक्टर से ज्योंही उसका अकस्मात् साक्षात् हुआ, उसने पहली ही दृष्टि में उसकी भूखी आंखों की याचना को जान लिया। उसने अनुभव किया कि सम्भवतः इस पुरुष से उसे मानसिक सुख मिलेगा। उधर डाक्टर भी अपने पौरुष को अनावृत करके निरीह भिखारी की भांति प्रशंसक वचनों पर उतर आया। याचक की प्रियमूर्ति, जिसके दर्शन से ही संचारीभाव का उदय होता है, और जिसका आतुर आकुल शरीर स्पर्श उष्णता प्रदान करता है, ऐसा ही यह व्यक्ति, उसे अनायास ही प्राप्त हो गया।

एक दिन सभा में जब सभानेत्री महोदया, तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट में ऊंची कुर्सी पर बैठी ( उपस्थित प्रमुख पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें सादर मोटर से उतारकर फूलमालाओं से लाद दिया था ) तो माया के पास बैठी एक महिला ने मुंह बिचकाकर कहा---'लानत है इसपर; यहां ये ठाट हैं, वहां खसम ने पीटकर घर से निकाल दिया है। अब मुकदमेबाजी चल रही है।'

दूसरी देवी ने कुतूहल से पूछा---'क्यों? ऐसा क्यों है?'

'कौन अपनी औरत का रात-दिन पराये मर्दो के साथ घूमते रहना, हंस-हंसकर बातें करना पसन्द करेगा भला? घर-गिरस्ती देखना नहीं, देशोद्धार करना या महिलोद्धार करना और घर- बाहर आवारा फिरना।'

'तो फिर बीबी, बिना त्याग किए यों देशसेवा हो भी नहीं सकती।'

'खाक देशसेवा है। जो अपने पति और बाल-बच्चों की सेवा नहीं कर सकती, अपनी घर-गिरस्ती को नहीं सभाल सकती, वह देशसेवा क्या करेगी ? देश के शांत जीवन में अशांति की आग अवश्य लगाएगी।'

माया को ये बातें चुभ रही थीं। उससे न रहा गया, उसने तीखी होकर कहा-'क्या चकचक लगाए हो बहिन, घर-गिरस्ती जाकर संभालो न, यहां वक्त बरबाद करने क्यों आई हो?'

महिला चुप तो हो गई पर उसने तिरस्कार और अवज्ञा की दृष्टि से एक बार माया को और एक बार सभानेत्री को देखा।

माया सिर्फ स्त्रियों ही के जलसों में नहीं आती-जाती थी, यह उन जलसों में भी भाग लेने लगी, जिनमें पुरुष भी होते। बहुधा वह स्वयं सेविका बनती, और ऐसे कार्यों में तत्परता दिखाकर वाहवाही लूटती। उसकी लगन, तत्परता, स्त्री-स्वातन्त्र्य की तीव्र भावना के कारण इस जाग्रत् स्त्री-जगत में उसका परिचय काफी बढ़ गया। वह अधिक विख्यात हो गई। लीडर-स्त्रियों ने उसे अपने काम की समझा, उसका आदर बढ़ा। माया इससे और भी प्रभावित होकर इस सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ती गई और अब उसकी वह क्षुद्र-दरिद्र गिरस्ती, छोटी-सी पुत्री और समाज में अतिसाधारण-सा अध्यापक उसका पति, सब कुछ हेय हो गया।

वह बहुत कम घर आती। बहुधा मास्टर साहब को खाना स्वयं बनाना पड़ता, चाय बनाना तो उनका नित्य कर्म हो गया।

पुत्री प्रभा की सार-संभार भी उन्हें करनी पड़ने लगी। वे स्कूल जाएं, टयूशन करें, बच्ची को संभालें, भोजन बनाएं और घर को भी संभालें, यह सब नित्य-नित्य सम्भव नहीं रहा। घर में अव्यवस्था और अभाव बढ़ गया। माया और भी तीखी और निडर हो गई। वह पति पर इतना भार डालकर, उनकी यत्किचित् भी सहायता न करके, उनकी सारी सम्पत्ति को अधिकृत करके भी निरन्तर उनसे क्रुद्ध और असन्तुष्ट रहने लगी। पति की क्षुद्र आय का सबसे बड़ा भाग उसकी साड़ियों में, चन्दों में, तांगे के भाड़े में और मित्र-मित्राणियों के चाय-पानी में खर्च होने लगा। मास्टर साहब को मित्रों से ऋण लेना पड़ा। ऋण मास-मास बढ़ने लगा और फिर भी खर्च की व्यवस्था बनी नहीं। दूध आना बन्द हो गया, घी की मात्रा कम हो गई, साग-सब्जी में किफायत होने लगी। मास्टरजी के कपड़े फट गए, उन्होंने और एक ट्यूशन कर ली। वे रात-दिन पिसने लगे। छोटी-सी बच्ची चुपचाप अकेली घर में बैठी पिता और माता के आगमन की प्रतीक्षा करने की अभ्यस्त हो गई। बहुधा वह बहुत रात तक, सन्नाटे के आलम में, अकेली घर में डरी हुई, सहमी हुई, बैठी रहती। कभी रोती, कभी रोती-रोती सो जाती, बहुधा मूखी- प्यासी।

जारी है

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